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बात यह नहीं है कि दिमाग फिर गया है मेरा,
बस, थका दिया है मुझे यहाँ की गर्मियों ने।
अलमारी में ढूँढ़ने लगता हूँ कमीज
और इसी में पूरा हो जाता है एक दिन।
अच्छा हो कि सर्दियाँ आयें जल्दी-से-जल्दी
बुहार कर ले जायें
इन शहरों और लोगों को
शुरूआत वे यहाँ की हरियाली से कर सकती हैं।
मैं घुस जाऊँगा बिस्तर में
बिना कपड़े उतारे
पढ़ने लगूँगा किसी दूसरे की किताब
किसी भी जगह से
पढ़ता जाऊँगा
जब तक साल के बाकी दिन
अंधे के पास से भागे कुत्ते की तरह
पहुँच नहीं जाते निर्धारित जगह पर।
हम स्वंतत्र होते हैं उस क्षण
जब भूल जाते हैं
आततायी के सामने पिता का नाम,
जब शीराजा के हलवे से अधिक
मीठा लगता है अपने ही मुँह का थूक।
भले ही हमारा दिमाग
मोड़ा जा चुका है मेढ़े के सींगों की तरह
पर कुछ भी नहीं टपकता
हमारी नीली ऑंखों से।
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